President Murmu vs Supreme Court: गवर्नर और राष्ट्रपति की भूमिका पर नई बहस, क्या बदलेगा फैसला लेने का तरीका?

President Murmu vs Supreme Court: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले पर आपत्ति जताई है जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभा से पास बिलों पर फैसला लेने के लिए समय-सीमा

May 15, 2025 - 11:08
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President Murmu vs Supreme Court: गवर्नर और राष्ट्रपति की भूमिका पर नई बहस, क्या बदलेगा फैसला लेने का तरीका?

President Murmu vs Supreme Court: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले पर आपत्ति जताई है जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभा से पास बिलों पर फैसला लेने के लिए समय-सीमा तय की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को दिए गए अपने फैसले में कहा था कि अगर विधानसभा कोई बिल पास करती है तो राज्यपाल को तीन महीने के भीतर उस पर फैसला लेना होगा। इसके अलावा अगर वही बिल दोबारा विधानसभा से पास होकर आता है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी। इसी तरह अगर बिल राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो उन्हें भी तीन महीने के भीतर उस पर निर्णय लेना होगा। राष्ट्रपति ने इस पूरे फैसले पर सवाल खड़े करते हुए सुप्रीम कोर्ट से करीब 14 अहम सवाल पूछे हैं।

राष्ट्रपति ने उठाया संविधानिक अधिकारों का मुद्दा

राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई तय समय-सीमा या प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है जिससे यह तय हो कि उन्हें कब तक कोई बिल पास या अस्वीकार करना है। ऐसे में जब संविधान ने खुद ही समय-सीमा तय नहीं की तो सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देने का अधिकार कहां से मिल गया। उन्होंने पूछा कि जब राज्यपाल को किसी बिल पर विचार करना होता है तो क्या वे मंत्रिपरिषद की सलाह के बंधन में होते हैं या नहीं। क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को दी गई संवैधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग उचित है या उस पर भी न्यायालय की निगरानी हो सकती है।

राष्ट्रपति के 14 सवाल जो उठाए संविधान पर गंभीर प्रश्न

राष्ट्रपति मुर्मू ने जो सवाल पूछे हैं उनमें से कुछ बेहद गंभीर और संवैधानिक व्याख्या से जुड़े हैं। उन्होंने पूछा है कि क्या अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा पूरी तरह से प्रतिबंधित है। इसके अलावा यह भी सवाल उठाया गया है कि जब संविधान ने कोई समय-सीमा तय नहीं की तो क्या सुप्रीम कोर्ट उसे अपने आदेश से थोप सकता है। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या किसी बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने से पहले राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय लेनी चाहिए। एक अन्य सवाल में उन्होंने कहा कि क्या अदालत उस बिल की वैधता पर विचार कर सकती है जो अभी तक कानून बना ही नहीं है। इसके अलावा उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत ऐसे आदेश दे सकता है जो संविधान या कानून के विपरीत हों।

संविधान की व्याख्या का विषय बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला

राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए यह सवाल केवल किसी एक फैसले पर आपत्ति नहीं है बल्कि यह संविधान की गहराई से जुड़ा मामला है। राष्ट्रपति ने स्पष्ट किया है कि अगर राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसले केवल कार्यपालिका के स्तर पर हैं तो न्यायपालिका उसमें किस हद तक हस्तक्षेप कर सकती है। उन्होंने यह भी पूछा कि अगर किसी मामले में संविधान की व्याख्या से जुड़ा बड़ा सवाल है तो क्या उसे सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ यानी कम से कम पांच जजों की बेंच को भेजा जाना चाहिए। यह सवाल भी उठाया गया है कि क्या राज्य विधानमंडल से पारित कोई कानून बिना राज्यपाल की सहमति के भी ‘अधिनियमित कानून’ माना जा सकता है। राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए यह सवाल अब एक नई बहस को जन्म दे सकते हैं जो संघीय ढांचे और संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों की व्याख्या से संबंधित होगी।

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